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भाजपा ने 195 उम्मीदवारों की जो पहली सूची जारी की थी, उसमें सबसे ज्यादा 51 नाम उत्तर प्रदेश के थे। वहीं, कांग्रेस की पहली सूची में ज्यादातर प्रत्याशी केरल से हैं। एक-एक सूची जारी हो जाने के बाद क्या समीकरण बनते दिख रहे हैं? क्या उत्तर प्रदेश में उम्मीदवार तय करने में देरी का कांग्रेस को पूरे उत्तर भारत में नुकसान उठाना पड़ सकता है? इसी विषय पर इस बार ‘खबरों के खिलाड़ी’ में चर्चा हुई। चर्चा के लिए वरिष्ठ पत्रकार रामकृपाल सिंह, विनोद अग्निहोत्री, जयशंकर गुप्त, समीर चौगांवकर और अवधेश कुमार मौजूद थे। 

क्या ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस उत्तर भारत की उपेक्षा कर रही है?

रामकृपाल सिंह: 1989 में राजीव गांधी का दौर था। तब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार अल्पमत में आ गई थी। तब वहां नारायण दत्त तिवारी नेता प्रतिपक्ष थे और कांग्रेस कश्मकश में थी। तिवारी विधानसभा के अंदर मुलायम सरकार का समर्थन कर रहे थे, जबकि उस समय कांग्रेस अपनी स्थिति मजबूत करने की ताकत रखती थी। 2017 तक आते-आते यूपी में कांग्रेस की यह हालत हो गई कि उसने विधानसभा चुनाव में सपा से कांग्रेस के लिए महज 100 सीटें मांगीं। 

भाजपा की पहली सूची में 195 नाम हैं। कांग्रेस की पहली सूची में 39 में से 16 उम्मीदवार केरल से हैं। इस बीच, केसी वेणुगोपाल एक इंटरव्यू में कह रहे हैं कि भाजपा की सीटें कम करना हमारा लक्ष्य है। ऐसे में वे देश को क्या संदेश देना चाहते हैं? संदेश तो यह जा रहा है कि कांग्रेस अब भाजपा का विकल्प नहीं है। अब तो कांग्रेस के साथ गठबंधन वाले दल ही कांग्रेस के खिलाफ बयान दे रहे हैं।

जयशंकर गुप्त: लोकसभा चुनाव की अधिसूचना जारी होने में वक्त है। राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों की सूची तैयार करने में लगे हैं। यह काम राजनीतिक दलों पर ही छोड़ देना चाहिए। यह चिंता हमें नहीं करनी चाहिए। कांग्रेस ने अपनी सूची की शुरुआत केरल से कर दी है। अब यह स्पष्ट हो चुका है कि राहुल गांधी वायनाड से ही चुनाव लड़ेंगे। उधर, भाजपा बिहार और महाराष्ट्र में क्या करेगी, इस पर नजरें हैं। 

विनोद अग्निहोत्री: जिन राज्यों में कांग्रेस-भाजपा के बीच सीधा मुकाबला है, वहां अगर कांग्रेस यह कह दे कि हम अधिकतम लोकसभा सीटें जीतेंगे तो यह दावा गलत होगा। ऐसे दावों से तो लोग हंसेंगे। चर्चा तो अभी यही हो रही है कि कांग्रेस भाजपा की कितनी सीटें घटा सकती है। जब आप खेल के मैदान में होते हैं तो किसी हराकर ही जीतेंगे तो दोनों चीजें आपस में जुड़ी हुई हैं। कांग्रेस की पहली सूची में दक्षिण के राज्य हैं और उत्तर में छत्तीसगढ़ से नाम हैं। 

बिहार और महाराष्ट्र में भाजपा की स्थिति साफ नहीं है। क्या एनडीए में सब कुछ ठीक चल रहा है?

समीर चौगांवकर: भाजपा का पलड़ा अपने सहयोगी दलों के मुकाबले भारी है। महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे और अजीत पवार जानते हैं कि उनके बिना भी भाजपा 25 से 35 सीटें जीतने की स्थिति में है। इसलिए गठबंधन के मामले में भाजपा की स्थिति कांग्रेस से बेहतर है। कांग्रेस ने अभी कम सीटों पर उम्मीदवार घोषित किए हैं। अमेठी-रायबरेली या जहां पर कांग्रेस 2019 में जीती थी, वहां के उम्मीदवार उसे घोषित कर देने चाहिए थे। कांग्रेस जानती है कि भाजपा अब बहुत बड़ी पार्टी बन चुकी है। उनके पास संसाधन हैं, प्रधानमंत्री मोदी के रूप में एक चेहरा है। ऐसे में कांग्रेस को ज्यादा से ज्यादा उम्मीदवार पहले ही घोषित कर देने चाहिए थे। एनडीए में कुछ ही सीटों पर मामला फंसा हुआ है। वहां गठबंधन टूटने की स्थिति अभी नहीं दिख रहा है।

अवधेश कुमार: अभी तक भाजपा को छोड़कर एनडीए के किसी भी घटक दल ने अपने उम्मीदवार घोषित नहीं किए हैं। चंद्रबाबू नायडू और नवीन पटनायक पिछले एक साल से भाजपा का साथ चाह रहे हैं। चंद्रबाबू यह जानते हैं कि अगर उन्हें भाजपा का साथ मिलता है तो आंध्र की राजनीति में उनकी वापस हो सकती है। उधर, ओडिशा में भाजपा लोकसभा चुनाव में मजबूत स्थिति में दिख रही है, ऐसे में बीजद के तेवर बदले हैं। एनडीए में यह हालत है कि अब नीतीश प्रधानमंत्री की मौजूदगी में खुलकर कह रहे हैं कि मैं अब कहीं नहीं जाने वाला। क्या कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन में कोई दल इतने भरोसे से यह बात कह सकता है? इंडी अलायंस में द्रमुक, बंगाल में तृणमूल और दिल्ली की आप इकाई को छोड़ दीजिए तो किसी भी दल में भाजपा के खिलाफ जुझारूपन नहीं दिखाई देता। 

जयशंकर गुप्त: सवाल यह है कि नीतीश कुमार भाजपा की मजबूरी क्यों हैं? भाजपा ने तो 75 पार वाले नेताओं को चुनाव नहीं लड़वाने का नियम बनाया था। हुकुमदेव नारायण, मुरली मनोहर जोशी जैसे नेताओं को टिकट नहीं दिया गया, लेकिन भाजपा हेमा मालिनी को चुनाव लड़ा रही है। उधर, पवन सिंह, निरहुआ को चुनाव लड़ा रही है। भाजपा 370 का दावा कर रही है, फिर भी उसे सितारों का साथ चाहिए। कांग्रेस तो ऐसा दावा नहीं कर रही।

इस बार मुकाबला किस तरह का दिख रहा है?

रामकृपाल सिंह: अगर असमान में से कोई समान चीज निकालेंगे तो नतीजा असमान ही बचेगा। विपक्ष आरोप लगाता है, लेकिन ऐसा तो नहीं है कि 2014 से पहले भारत स्विट्जरलैंड की तरह था और भाजपा ने आकर सब बर्बाद कर दिया। स्वतंत्रता दिवस के बाद नेहरू लोकप्रिय थे। जब इंदिरा गांधी आईं तो गरीबी हटाओ का नारा दिया। जयप्रकाश नारायण संपूर्ण क्रांति की बात करते थे। लोकसभा चुनावों में पहले सकारात्मक नैरेटिव ही रहे हैं। फिर ‘अच्छे दिनों’ की बात होने लगी। इस बार लोकसभा चुनाव में मुकाबला असमान है। जो कमजोर है, उसे ज्यादा मजबूती से लड़ना होगा। 22 जनवरी के बाद कोई विपक्ष यह नहीं कह रहा कि हम पीएम मोदी को हटा देंगे। अब विमर्श इस पर आ चुका है कि भाजपा की सीटें कितनी कम कर सकते हैं? पहली बार ऐसा होता दिख रहा है कि 2014 का ग्राफ 2019 में बढ़ा और 2024 में यह और बढ़ता दिख रहा है। 

समीर चौगांवकर: 2014 में जब भाजपा जीतकर आई तो आरएसएस के साथ एक बैठक हुई। जब यह सवाल उठा कि अगले पांच साल का एजेंडा कैसा होगा, तभी प्रधानमंत्री मोदी ने यह साफ कर दिया था कि वे 15 साल के विजन के साथ दिल्ली आए हैं। अब तो भाजपा के नेता कह रहे हैं कि 2024 क्या, 2029 में ही पीएम मोदी ही नेतृत्व करेंगे। जनता के बीच अगर कांग्रेस को जाना है तो उसे मुद्दों पर बात करनी होगी, अगर कांग्रेस सिर्फ प्रधानमंत्री की आलोचना करती रहेगी तो उसे कोई फायदा नहीं होने वाला। 

विनोद अग्निहोत्री: सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों ही मुद्दों पर वोट डाले जाते हैं। 2014 में जब भाजपा चुनाव में उतरी तो सकारात्मक एजेंडे के साथ उतरी। सवाल यह है कि अगर भाजपा की 50 सीटें कम होती हैं तो वह 50 सीटें किसके खाते में जाती दिख रही हैं? राहुल गांधी अगर भारत यात्रा कर रहे हैं तो जनता के बीच ही कर रहे हैं, वे अकेले नहीं चल रहे। यह कहना सही नहीं है कि राहुल गांधी जनता के बीच नहीं जा रहे। पिछली बार की यात्रा से उन्हें कहीं फायदा मिला, कहीं नहीं मिला।  

अवधेश कुमार: भाजपा-आरएसएस का विरोध पहले भी होता था। अब विपक्ष में नफरत का स्तर यह है कि खुद बर्बाद हो जाएं, लेकिन भाजपा और आरएसएस की आलोचना नहीं छोड़ेंगे। भाजपा चुनाव हारती थी, लेकिन आंदोलन करती थी, तब जाकर यहां तक पहुंची है। 1989 से खंडित जनादेश का दौर था। मजबूत जनादेश 2014 से आ रहा है। तमिलनाडु में अगर द्रमुक सनातन के खिलाफ बोल रही है तो इसके पीछे क्या कारण है? जब यह लगता है कि समाज में दूसरी धारा खड़ी हो रही है तो इस तरह के बयान आते हैं। हिंदू और सनातन शब्द का लगातार विरोध विपक्ष को ले डूबेगा।

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