Notes in Hindi - Geography - स्थलमंडल (Lithosphere) - भाग -2

Notes in Hindi for Competitive Exams -Geography- स्थलमंडल भाग -2

Notes in Hindi – Geography – स्थलमंडल (Lithosphere) – भाग -2

Notes in Hindi – Geography – स्थलमंडल (Lithosphere) – भाग -2

Geography of India in Hindi

( i ) स्थलमंडल (Lithosphere) , ( ii ) जलमंडल (Hydrosphere) , ( iii ) वायुमंडल (Atmosphere) , ( iv ) (Biosphere)

                                                                                                       

भूकम्प (Earthquake)

Notes in Hindi – Geography – स्थलमंडल (Lithosphere) – भाग -2

भूगर्भशास्त्र की एक विशेष शाखा , जिसमें भूकम्पों का अध्ययन किया जाता है , सिस्मोलॉजी कहलाता है । भूकम्प (Earthquake) की तीव्रता की माप रिक्टर पैमाने पर की जाती है ।

भुकम्प की तीव्रता मापने वाली रिएक्टर स्केल का विकास अमेरिकी वैज्ञानिक चार्ल्स रिएक्टर द्वारा 1935 में की गई थी । इस स्केल पर 2.0 या 3.0 की तीव्रता का अर्थ हल्का भूकंप होता है । जबकि 6.2  तीव्रता का अर्थ शक्तिशाली भूकंप होता है

भूकम्प में तीन तरह के कम्पन होते हैं

  1. प्राथमिक तरंग ( Primary wave ) : यह तरंग पृथ्वी के अन्दर प्रत्येक माध्यम से होकर गुजरती है । इसकी औसत वेग 8 किमी प्रति सेकण्ड होती है । यह गति सभी तरंगों से अधिक होती है । जिससे ये तरंगे किसी भी स्थान पर सबसे पहले पहुँचती है ।
  2. द्धितीय तरंग ( Secondary waves ) : इन्हें अनुप्रस्थ तरंगें भी कहते है । यह तरंग केवल ठोस माध्यम से होकर गुजरती है । इसकी औसत वेग 4 किमी प्रति सेकण्ड होती है ।
  3. एल तरंगे ( L – wave ) : इन्हें धरातलीय या लम्बी तरंगों के नाम से भी पुकारा जाता है । इन तरंगों की खोज H. D. Love ने की थी । इन्हें कई बार Love waves के नाम से भी पुकारा जाता है । इनका अन्य नाम R – waves ( Ray Light waves ) है । ये तरंगें मुख्यतः धरातल तक ही सीमित रहती है । ये ठोस तरल तथा गैस तीनों माध्यमों में से गुजर सकती हैं । इसकी 1.5-3 किमी प्रति सेकण्ड है । 
  • भूकम्पीय तरंगों को सिस्मोग्राफ ( Seismograph ) नामक यन्त्र द्वारा रेखांकित किया जाता है । इससे इनके व्यवहार के सम्बन्ध में निम्नलिखित तथ्य निकलते हैं :
  1. सभी भूकम्पीय तरंगों का वेग अधिक घनत्व वाले पदार्थों में से गुजरने पर बढ़ जाता है तथा कम घनत्व वाले पदार्थों में से गुजरने पर घट जाता है ।
  2. केवल प्राथमिक तरंगें ही पृथ्वी के केन्द्रीय भाग से गुजर सकती है । परन्तु वहाँ पर उनका वेग कम हो जाता है ।
  3. गौण तरंगें द्रव पदार्थ में से नहीं गुजर सकतीं ।
  4. एल तरंगें केवल धरातल के पास ही चलती हैं ।
  5. विभिन्न माध्यमों में से गुजरते समय ये तरंगें परावर्तित तथा अपवर्तित होती हैं ।
  • केन्द्र : भूकम्प के उद्भव स्थान को उसका केन्द्र कहते हैं । भूकम्प के केन्द्र के निकट P,S तथा L तीनों प्रकार की तरंगें पहुँचती हैं । पृथ्वी के भीतरी भागों में ये तरंगें अपना मार्ग बदलकर भीतर की ओर अवतल मार्ग पर यात्रा करती हैं । भूकम्प केन्द्र से धरातल के साथ 11000 किमी की दूरी तक P तथा S- तरंगें पहुंचती है । केन्द्रीय भाग ( Core ) पर पहुँचने पर S- तरंगें लुप्त हो जाती हैं और P- तरंगें अपवर्तित हो जाती हैं । इस कारण भूकम्प के केन्द्र से 11000 किमी के बाद लगभग 5000 किमी तक कोई भी तरंग नहीं पहुँचती है । इस क्षेत्र को छाया क्षेत्र ( Shadowzone ) कहा जाता है । –
  • अधिकेन्द्र ( Epicentre ) : भूकम्प के केन्द्र के ठीक ऊपर पृथ्वी की सतह पर स्थित बिन्दु को भूकम्प का अधिकेन्द्र कहते हैं ।
  • अन्तःसागरीय भूकम्पों द्वारा उत्पन्न लहरों को जापान में सुनामी कहा जाता है ।

विभिन्न स्थलाकृतियाँ : निर्माण के आधार पर स्थलाकृतियाँ मुख्यतः तीन प्रकार की होती हैं -1 . पर्वत 2 . पठार तथा 3. मैदान

1 . पर्वत (Mountains) : उत्पति के आधार पर पर्वत चार प्रकार के होते है :-

(a)  ब्लॉक पर्वत ( Block mountain ) : जब चट्टानों में स्थित भ्रंश के कारण मध्य भाग नीचे धंस जाता है तथा अगल – बगल के भाग ऊँचे उठे प्रतीत होते हैं , तो ब्लॉक पर्वत कहलाते हैं । बीच में धंसे भाग को रिफ्ट घाटी कहते हैं । इन पर्वतों के शीर्ष समतल तथा किनारे तीव्र भ्रंश – कगारों से सीमित होते है ।

इस प्रकार के पर्वत के उदाहरण है – वॉस्जेस ( फ्रांस ) , ब्लैक फॉरेस्ट ( जर्मनी ) , साल्ट रेंज ( पाकिस्तान )

नोट : विश्व की सबसे लम्बी रिफ्ट घाटी जार्डन नदी की घाटी है , जो लाल सागर की बेसिन से होती हुई जेम्बजी नदी तक 4800 किमी लम्बी है ।

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( b ) अवशिष्ट पर्वत ( Residual Mountain ) : ये पर्वत चट्टानों के अपरदन के फलस्वरूप निर्मित होते है ; जैसे – विन्ध्याचल एवं सतपुड़ा , नीलगिरी , पारसनाथ , राजमहल की पहाड़िया ( भारत ) सीयरा ( स्पेन ) , गैसा एवं बूटे ( अमेरिका ) ।

( c ) संचित पर्वत ( Accumulated Mountain ) :-  भूपटल पर मिट्टी , बालू , भू – कंकर , पत्थर , लावा के एक स्थान पर जमा होते रहने के कारण बनने बनने वाला पर्वत | रेगिस्तान में बनने वाले बालू के स्तूप इसी श्रेणी में आते हैं ।

( d ) वलित पर्वत ( Fold Mountain ) :- ये पृथ्वी की आन्तरिक शक्तियों धरातल की चट्टानों के मुड़ जाने से बनते हैं । ये लहरदार पर्वत हैं , जिन पर असंख्य अपनतियाँ और अभिनतियाँ होती हैं ; जैसे – हिमालय , आल्पस , यूराल , रॉकीज , एण्डीज आदि ।

  • वलित पर्वतों के निर्माण का आधुनिक सिद्धान्त प्लेट टेक्टॉनिक ( Plate Tectonics ) की संकल्पना पर आधारित है ।
  • जहाँ आज हिमालय पर्वत खड़ा है वहाँ किसी समय में टेथिस सागर नामक विशाल भू – अभिनति अथवा भू द्रोणी थी । दक्षिण पठार के उत्तर की ओर विस्थापन के कारण टेथिस सागर में बल पड़ गए और वह ऊपर उठ गया जिससे संसार का सबसे ऊंचा पर्वत हिमालय का निर्माण हुआ है
  • भारत का अरावली पर्वत विश्व के सबसे पुराने वलित पर्वतों में गिना जाता है , इसकी सबसे ऊँची चोटी माउण्ट आबू के निकट गुरुशिखर है , जिसकी समुद्रतल से ऊँचाई 1722 मी ० है । कुछ विद्वान अरावली पर्वतों को अवशिष्ट पर्वत का उदाहरण मानते हैं ।

2. पठार ( Plateau ) : धरातल का विशिष्ट स्थल रूप , जो अपने आस – पास के स्थल से पर्याप्त ऊँचा होता है तथा शीर्ष भाग चौड़ा और सपाट होता है । सामान्यतः पठार की ऊँचाई 300 से 500 फीट होती है । कुछ अधिक ऊँचाई वाला पठार है – तिब्बत का पठार ( 16,000 फीट ) , वोलीविया का पठार ( 12,000 फीट ) , कोलम्बिया का पठार ( 7800 फीट ) ।

पठार निम्न प्रकार के होते हैं

( a ) अन्तर्पवतीय पठार : पर्वतमालाओं के बीच बने पठार |

( b ) पर्वतपदीय पठार : पर्वततल और मैदान के बीच उठे समतल भाग ।

( c ) महाद्वीपीय पठार : जब पृथ्वी के भीतर जमा लैकोलिथ भू पृष्ठ के अपरदन के कारण सतह पर उभर आते हैं , तब ऐसे पठार बनते हैं । जैसे – द ० का पठार |

( d ) तटीय पठार : समुद्र के तटीय भाग में स्थित पठार ।

( e ) गुम्बदाकार पठार : चलन क्रिया के फलस्वरूप निर्मित पठार ; जैसे – रामगढ़ गुम्बद ( भारत )

3. मैदान ( Plain ) : 500 फीट से कम ऊँचाई वाले भूपृष्ठ के समतल भाग को मैदान कहते हैं ।

मैदान अनेक प्रकार के होते हैं:-

  • अपरदनात्मक मैदान : नदी , हिमानी , पवन जैसी शक्तियों के अपरदन से इस प्रकार के मैदान बनते हैं , जो निम्न हैं

( a ) लोएस मैदान : हवा द्वारा उड़ाकर लाई गयी मिट्टी एवं बालू के कणों से निर्मित होता है ।

( b ) कार्ट मैदान : चूने पत्थर की चट्टानों के घूलने से निर्मित मैदान ।

( c ) समपाय मैदान : समुद्र तल के निकट स्थित मैदान , जिनका निर्माण नदियों के अपरदन के फलस्वरूप होता है ।

( d ) ग्लेशियल मैदान : हिम के जमाव के कारण निर्मित दलदली मैदान , जहाँ केवल वन ही पाए जाते हैं ।

( e ) रेगिस्तानी मैदान : वर्षा के कारण बनी नदियों के बहने के फलस्वरूप इसका निर्माण होता है

  • निक्षेपात्मक मैदान : नदी निक्षेप द्वारा बड़े – बड़े मैदानों का निर्माण होता है । इसमें गंगा , सतलज , मिसीसिपी एवं कांग्हो के मैदान प्रमुख हैं । इस प्रकार के मैदानों में जलोढ़ का मैदान , डेल्टा का मैदान प्रमुख हैं ।

भिन्न – भिन्न कारकों द्वारा निर्मित स्थलाकृति:

  1. भूमिगत जल द्वारा निर्मित स्थलाकृति : ( i ) उत्सुत कुओं ( artision well ) ( ii ) गीजर ( ii ) घोल रंध्र ( iv ) डोलाइन ( v ) कार्ट झील ( vi ) युवाला ( vii ) पोलिए ( viii ) कन्दरा ( ix ) स्टेलेक्टाइट ( x ) स्टेलेग्माइट ( xi ) लैपीज ।

नोट : सर्वाधिक उत्सुत कुआँ आस्ट्रेलिया में पाया जाता है ।

2. सागरीय जल द्वारा निर्मित स्थलाकृति : ( i ) सर्फ ( ii ) वेला चली ( iii ) तंगरिका ( iv ) पुलिन ( v ) हुक ( vi ) लूप ( vii ) टोम्बोलो ।

3.हिमनद द्वारा निर्मित स्थलाकृति : ( i ) सर्क ( ii ) टार्न ( Gi ) अरेट ( iv ) हार्न ( v ) नुनाटक ( vi ) फियोर्ड ( vii ) ड्रमलिन ( viii ) केम आदि ।

4. पवन द्वारा निर्मित स्थलाकृति : ( i ) ज्युगेन ( i ) यारडंग ( it ) इनसेलवर्ग ( iv ) छत्रक ( v ) प्लैया ( vi ) लैगून ( vii ) बरखान ( viii ) लोएस ।

5. समुद्री तरंग द्वारा निर्मित स्थलाकृति : (i) समुद्री भृगु ( ii ) भुजिह्वा ( iii ) लैगून झील , ( iv ) रिया तट ( भारत का प ० तट ) ( v ) स्टैक ( vi ) डाल्मेशियन ( युगोस्लाविया का तट ) ।

वन ( Forest ) वन निम्न प्रकार के होते हैं :-

( a ) उष्ण कटिबन्धीय सदावहार वन ( Tropical Evergreen rain forest ) : इस प्रकार का बन विषुवत् रेखीय प्रदेश और उष्ण कटिबंधीय प्रदेशों में पाये जाते हैं , जहाँ 200 सेमी अधिक वर्षा होती है । यहाँ पेड़ों की पत्तियाँ चौड़ी होती हैं ।

( b ) उष्ण कटिबन्धीय अर्थ पतझड़ वन ( Tropicalsenideciduous forest ) : 150 सेमी से कम वर्षा प्राप्त करने वाला वन । साल , सागवान एवं बाँस आदि इसी वन में पाए जाते हैं ।

( c ) विषुवत रेखीय बन : इन वनों में वृक्ष और झाड़ियों का मिश्रण होता है – जैतून , कॉर्क तथा ओक यहाँ के मुख्य वृक्ष हैं ।

( d ) टेगा वन : ये सदावहार वन हैं । इस वन के वृक्ष की पत्तियाँ नुकीली होती हैं ।

( e ) टुण्डा बन : यह बर्फ से ढका रहता है । गर्मी में यहाँ मॉस तथा लाइकेन उगते हैं ।

(f) पर्वतीय बन : यहाँ चौड़ी पत्ती वाले शंकुधारी वृक्ष पाए जाते हैं ।

घास के मैदान : घास – भूमियों को दो वर्गों में विभाजित किया गया है

( a ) उष्ण कटिबंधीय घास – भूमियाँ इसे अलग – अलग देशों में अलग – अलग नाम से जाना जाता है , जैसे – सवाना ( अफ्रीका ) , कम्पोज ( ब्राजील ) , लानोस ( वेनजुएला व कोलम्बिया ) ।

( b ) शीतोष्ण कटिबंधीय घास – भूमियों इसे निम्न नाम से जाना जाता है – प्रेयरी ( संयुक्त राज्य अमरीका व कनाडा ) , पम्पास ( अर्जेन्टीना ) , वेल्ल ( दक्षिण अफ्रीका ) , डाउन्स ( आस्ट्रेलिया ) , स्टेपी ( एशिया , युक्रेन , रूस , चीन के मंचूरिया प्रदेश )

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